Sunday 31 May 2020

बिहार का नवनर्माण _ नई उम्मीद नया संकल्प

करोना महामारी के कारण बिहार के श्रमिकों को बेहद परेशानी से गुज़रना पड़ा है । जिस तरह श्रमिकों को समस्या हुई है वह शायद ही इतिहास में हुआ होगा ।वैसे महामारी और पलायन में रिश्ता है । जब भी महामारी फैली है पलायन हुआ है।करोना महामारी ने हमें सीख दी है कि जो काम आप किसी छोटी जगह में रह कर कर सकते हैं उसके लिए महानगरों में भीड़ बढ़ाने की क्या ज़रूरत है। जो दिल्ली,मुंबई, पंजाब,,गुजरात आदि कभी नरम फुलों की तरह भाती थी मगर अब वह बबूल की काँटों की तरह चुभ रही है। जब तक उनसे काम लेना था ख़ूब लिया गया। यथाशक्ति शोषित भी किया गया और महासंकट की उस बेला में उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। ये श्रमिक या तो वापस नहीं जाएँगे या अगर उन्हें अपनी जगह पर फिर अवसर नहीं मिलता है कुछ महीने रुक कर जाएँगे। उनके कटु अनुभव उनके पाँव को जकड़ लेगा। वे अपने रोज़ी रोटी का विकल्प अपने गाँव और आस पास के जिलों के शहरों में ढूँढने की कोशिश करेंगे। बिहार सरकार की भी चाहिए कि उनके लिए वहीं रोज़गार की व्यवस्था करे।ताकि दूसरे राज्य में जा कर अपनी तौहीन नहीं कराना पड़े। कोविंद-19 ने हमें बहुत कुछ सीखाया ही नहीं बल्कि हमारी जीवन शैली को बदल दिया है। यह सदी का सबसे कठोर शिक्षक साबित हुआ है। बिहार सरकार एवं स्वयंसेवी संगठन इस बात को समझे और वहीं पर उद्योग धंधे खोलकर उन्हें बेहतर ज़िंदगी देने की कोशिश करे। अगर फिर से रोज़ी रोटी के लिए अन्य प्रदेशों का रूख करना पड़े तो राज्य का साधुवाद छीन जाएगा। मिसाल के तौर पर तमिलनाडु राज्य है। जब बाल ठाकरे ने तमिलीयन को मुंबई में तंग करना शुरू किया था तो तमिलनाडु सरकार ने अपने राज्य में ही उनके रोज़गार की व्यवस्था की जिससे तमिलनाडु राज्य आज आत्मनिर्भर और सम्पन्न राज्य की सूची में आता है। बिहार में लौट रहे श्रमिकों की हूनर से बदला जा सकता है बिहार के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन। सरकार को संवेदनशील बनना पड़ेगा।बिहार सरकार को इस बीमारी से सबक़ लेकर श्रमिकों के लिए बेहतर रोज़गार एवं व्यवस्था बनाने की पहल करना पड़ेगा।यह समय बिहार सरकार के लिए असाधारण कार्य करने का है। क्या बिहार के नवनिर्माण का मार्ग 89 लाख श्रमिकों के श्रम व कौशल के लगाए बिना सम्भव है ? कहीं यह समय नए बिहार के निर्माण तथा बिहारियों की सम्मान की रक्षा का आमंत्रण तो नहीं दे रहा है ? करोना महामारी और लॉकडाउन ने इतिहास के सामने सच्चाई उजागर कर दिया कि कभी बहारों का क्षेत्र कहे जाने वाला बिहार कितना बेबस और मजबूर है। जहाँ के पचास लाख से भी ज़्यादा लोग पेट पालने के लिए बिहार से दूसरे  में अपमान झेलते हुए अपने श्रम बेचने पर मजबूर हैं। जबकि बिहार में ही विकास किया जा सकता था।बिहार में बृहत् कृषि क्षेत्र है। गंगा तथा सैकड़ों नदियों के कारण जल संसाधन की कमी नहीं है। दक्ष श्रमिकों की भी कमी नहीं है। सब कुछ के उपलब्धता के बावजूद बिहार में औद्योगिकरण क्यों नहीं हुआ ? रोज़गार का सृजन क्यों नहीं हुआ ? आज़ादी के बाद बिहार दो भागों में बँटा था उत्तरी बिहार एवं दक्षिणी बिहार।चुकि दक्षिणी बिहार खनिज सम्पदा से भरा हुआ था इसलिए सारे उद्योग वहीं लगे जो बाद में झारखण्ड के नाम से अलग राज्य बना।लेकिन उत्तरी बिहार (आज का बिहार ) में पतन का दौर आज़ादी के बाद से ही रहा ।लेकिन सबसे बुरा दौर 1990-2005 का रहा।यह दौर वैश्वीकरण का दौर था। सारे राज्यों में बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ का प्रसार हो रहा था। राज्यों में उन्हें बुलाने के लिए प्रतिस्पर्धा थी। छोटे,मँझले, बड़े उद्योग लग रहे थे। उन राज्यों में ख़ूब निवेश किए गए।उसी दौर में सॉफ़्टवेयर की क्षेत्र में क्रांति आयी हुई थी। लेकिन इन सबसे अलग लालू-राबरी राज ने बिहार में जंगल राज बनाया हुआ था। चोरी.डकैती,लूट-पाट अपनी चरम सीमा पर थी। जातिवाद के नाम पर अगड़े-पिछड़े जाति कहते हुए लोगों को एक दूसरे से लड़ाया जा रहा था। भला ऐसी परिस्थिति में कैसे औद्योगिकरण या निवेश होता।एक भी उद्योग नहीं लगा। जो फ़ैक्टरी लगी भी थीं बंद हो गए। व्यापारी अपना व्यापार बंद कर दूसरे राज्य चले गए। जूट उद्योग , चीनी उद्योग , पेपर उद्योग ,साइकल फ़ैक्टरी आदि बंद होते चले गए। यहाँ तक कि छात्र अपनी पढ़ाई पूरी करने दूसरे राज्य चले गए। दूसरा पंद्रह साल नीतीश सरकार का रहा जिन्होंने पंद्रह साल में क़ानून का राज तो स्थापित कर दिया लेकिन रोज़गार का अवसर पैदा करने में विफल रहे। अगर इन दोनो ने बिहार में औद्योगिकरण, तरक़्क़ी एवं रोज़गार की सृजन के बारे में सोचा होता तो आज जो स्थिति श्रमिकों की हुई ऐसी स्थिति कभी नहीं होती।करोना एक वरदान के रूप में आया जिसने बिहार के नेताओं की पोल खोल दिया। सभी सरकार केवल बिहार के गौरवशाली इतिहास पर इठलाती रही।
पिछले कुछ वर्षों से राजस्व सम्बंधी समझदारी आधारिक संरचना ( Infrasrtucure ) पर लक्ष्य आधारित ख़र्च और विकास की मिसाल बन कर बिहार ज़रूर उभरा है लेकिन ग़रीबी कम करने और पलायन रोकने के लिए सरकार को औद्योगिकरण और कृषि उत्पादकता में सुधार की ज़रूरत है।कुछ अरसे तक राज्य में उद्योग के नाम पर एकमात्र क्षेत्र निर्माण क्षेत्र ही रहा है।उद्योग धंधों को विकसित करने के लिए राज्य को लम्बा सफ़र तय करना होगा। राज्य में कृषि उपकरणों में और छोटे मशीन निर्माण,पर्यटन,सूचना,प्रौद्योगिकी ( IT ) खाद्य प्रसंस्करण और रेडीमेड वस्त्र निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी।तत्काल इस क्षेत्र में निवेश की ज़रूरत है। जूट पूर्वोत्तर बिहार का एक प्रमुख कृषि उत्पाद होता था। जूट उत्पादन से सीमांचल में विकास व स्वरोज़गार के उद्देश्य से पूर्णिया में जूट पार्क लगाया गया था।कुछ दिनों से वह भी श्रम शोषण के कारण ठप्प पड़ा है उसे फिर से विकसित करने की ज़रूरत है। बिहार सरकार जूट एवं चीनी उद्योग को उबारने पर ध्यान दे जो बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन ;को प्रभावित करता है। तकनीक के दौर में आवश्यक है कि राज्य की आईटी आई विश्वस्तरीय बने। हमारे श्रमिक हूनर के साथ गाँव लौटे हैं।अनेक तरह से शहरी हूनर से लैस ये श्रमिक गाँव, जिले की तस्वीर बदल सकते हैं। ये युवा पीढ़ी दूसरे राज्य से लौट कर जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर सामाजिक तानाबाना भी बनेंगे। घरेलू महिलायें भी दक्ष हो गयी होंगी। स्वरोज़गार के हूनर भी सामने आएँगे। ज़रूरत है कि सरकारी ख़ज़ाने से या बैंक से उन्हें सहायता दी जाए ।बिहार सरकार को दूरदर्शितापूर्ण योजना बनाकर अमल करना चाहिए।इससे गाँव और जिलों कि अर्थ व्यवस्था वापस लौटेगी। चुना ,ईंट, सिमेंट, लोहा,वेल्डिंग,लकड़ी आदि तरह तरह के रोज़गार एवं छोटे, बड़े व्यापार फलेंगे फूलेंगे। बिहार की जनता के प्रति केंद्र सरकार का भी दायित्व बनता है। क्योंकि दूसरे राज्य अमीर होते गए और बिहार ग़रीब होते गया। बदलाव का यह समय हस्तकौशल परम्पराओं का पुनरुद्वार कर ख़ाली होने जा रहे हाँथों का कूदतरत और माटी से दोबारा जोड़ने का है ताकि ख़ाली दिमाग़ कुछ सुंदर नया रचे। समय की माँग है कि बिहार में उद्दमशीलता की प्रक्रिया वास्तविक रूप से आसान बनाया जाए। नेता और जनता जातिवाद से ऊपर उठकर बिहार में औद्योगिक क्रांति में अपना योगदान दें।इन्स्पेक्टर राज से पूरी तरह मुक्ति पानी होगी। ज़मीन ख़रीदने और बेचने की प्रक्रिया को आसान बनाने की ज़रूरत है। कलेयर लैंड टाइटल से उद्दमशीलता को बढ़ावा मिलेगा।रोज़गार सृजन को बढ़ावा देने के लिए निवेश लाने के लिए प्रयास करना होगा।सरकार को बुनियादी ढाँचा क्षेत्र में निवेश के लिए अपने ख़ज़ाने का मुँह खोलना होगा। केंद्र सरकार द्वारा अच्छी फ़ंडिंग के कारण बिहार सरकार के पास पैसे की कमी नहीं होनी चाहिए। अगर नहीं भी है निवेश करने के लिए अपने ख़ज़ाने का मुँह खोलना होगा। यह इसलिए ज़रूरी है ताकि इस निवेश असर तुरंत महसूस हो और तात्कालिक संकट पर क़ाबू पाया जा सके। अगर सरकार श्रमिकों को अपने गाँव एवं जिले में रोज़गार देने में सफल होती है तो जनता का  आधुनिक बिहाार  का सपना पूरा होगा और श्रमिक अपने दर्द को भूल पाएँगे। बिहार की जनता को आज सोचने की ज़रूरत है कि बिहार से लोग दूसरे राज्य में जाते हैं लेकिन दूसरे राज्य से लोग बिहार नहीं आते। क्यों ? कौन थे और कौन हैं इसके ज़िम्मेवार ? इसके ज़िम्मेवार नेता के साथ जनता भी रही। जनता जातिवाद में बँटी रही और नेता इसका फ़ायदा उठाते रहे। सोशल इंजनीरिंग के नाम पर लड़ाते रहे। अब परिवर्तन की ज़रूरत है। अब शासक से सवाल पूछने का समय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की ज़रूरत है। बिहार की जनता को इस बार उम्मीद है कि बिहार में उद्योग लगेंगे । इसके लिए लेना होगा दृढ़ संकल्प । हम एक नया बिहार ज़रूर बनाएँगे।
फोटो : गूगल

Saturday 23 May 2020

गंगा ने बचाया लॉक डाउन के दौरान देश के अरबों रुपए

लॉक डाउन ने अगर  मानव एवं अर्थव्यवस्था को एक तरफ़ क्षत-विक्षत किया तो दूसरी तरफ़ पर्यावरण हवा, नदी,एवं आसमान में एक बड़ा बदलाव किया है। यह एक वरदान के रूप में आया है।
लॉक डाउन के दौरान अविरल और निर्मल बहती जीवनदायिनी गंगा ने क़रीब 50 वर्ष बाद रूप बदल लिया।कल कल करते हुए गंगा की आवाज़ सिर्फ़ अविरल धारा का बहाव नहीं यह पतित पावनी की दिल की आवाज़ भी है। गंगा की शोर मे  उसकी मुस्कान महसूस होता है।
जिस गंगा को अरबों रुपये ख़र्च करके सरकारों ने निर्मल नहीं कर पायी वही गंगा गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक इस लॉक डाउन  मे ख़ुद से साफ़ कर लिया।गंगा ने देश के अरबों रुपये बचा लिए।हमने गंगा के आँचल को इन पचास वर्षों मे बहुत गंदा किया।सामाजिक संस्थाएँ,सरकारें,वैज्ञानिकों द्वारा जिस गंगा के जल को पीने योग्य नहीं बनाया जा सका उस गंगा का जल लौकडाउन के दौरान पीने हो गया।इसके पानी में 500% TDS की कमी आयी है।आज इसकी TDS की वैल्यू 72 है जो सामान्यतः घरों में पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं । जिस गंगा के जल को B category में रखा गया था अब वह A category में आ गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब गंगा के जल को dysinfect कर पीने के योग्य हो सकता है।

उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक़ गंगा का जल अब दशकों बाद chlorification के बाद पीया जा सकता है।हर की पौड़ी एवं ऋषिकेश से लिए गए जल के sample से यह साबित हुआ है। पानी का PH balance 6.5-8.5 के बीच है।PH balance से ही पानी में acid की जाँच होती है।वैज्ञानिकों ने भी माना है कि लोगों की ग़ैर मौजूदगी एवं फ़ैक्टरी बंद होने से प्रदूषण अब गंगा में नहीं होता जिसके कारण यह बड़ा परिवर्तन सम्भव हुआ है।

गंगा के निर्मल निश्छल नीला रंग अब पीने योग्य हो गया है। जिस गंगा जल को पूजा जाता है उसे दूषित कोई नहीं बल्कि हम इंसानों ने किया है।जब लॉक डाउन है, फ़ैक्टरी बंद पड़े हैं और घाटों पर किसी को जाने की इज़्ज़ाजत नहीं है गंगा ने स्वयं को स्वच्छ कर लिया।गंगा अपने ही जल में साँस ले रही है क्योंकि उसमें oxygen की मात्रा बढ़ी है।
गंगा उत्तराखण्ड से बंगाल की खाड़ी तक की दूरी लगभग 2500 km तय करती है जिसमें 29 बड़े शहर, 23 छोटे शहर और 48 क़स्बे आते हैं जिन्हें पोषण करती है। लेकिन दू:ख है कि इसमें लगभग 1000 फ़ैक्टरी का कचड़ा और शहरों के गंदी नालों का पानी गिराए जाते हैं। रासायनिक कारख़ानों का कचड़ा गंगा मेन बहाए गए। कानपुर के चर्म उद्योग ने भी गंगा को प्रदूषित किया। औद्योगिक विकास हमारी उन्नति,प्रगति,और समृद्धि के लिए आवश्यक है इसलिए औद्योगिक इकाइयों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी किन्तू इन इकाइयों की गंध, तेज़ाब,गंधक,कौस्टिक सोडा आदि के निस्तारण का समुचित प्रबंध नहीं होने से उसे गंगा नदी में बहा दिया जाता है।शहरों में घनी आबादी वाले क्षेत्रों में मल-मूत्र को बिना उपचार किए नदी में बहाए गए। तीर्थ स्थलों पर लाखों लीटर मैले गंदगी गंगा मे बहाते रहे। गंगा के तटों पर लाखों शवों का दाह किया जाता है। इसके लिए लाखों टन लकड़ियों की ज़रूरत होती है जिसके जलने से लाखों टन राख जमा हो जाती है। इन सब से जल का प्रदूषण स्तर बढ़ जाता है।
गंगा के स्रोतों के पर्यावरणप्रदूषण के विषय पर योजनाएँ बनीं।प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ कार्यवाही भी हुई। जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए कुछ कार्यवाही भी हुई। जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रदूषण निरोधक जाल भी बिछाया गया जिसे Enviornmental Monitoring System कहा जाता है।Central pollution board ने प्रदूषण को रोकने के लिए अनेक उपाय किए। केंद्रीय गंगा संस्थान प्राधिकरण 1985 में स्थापित किया गया। उसका मुख्य उद्देश्य गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त करना था। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक विश्वविद्यालय एवं प्रयोगशाला में इसपर अध्ययन एवं शोध हुए।राष्ट्रीय सेवा योजना, नेहरु युवक केंद्र ने भी काम किए। लेकिन परिणाम संतोष जनक नहीं रहा। स्वयं सेवी संगठनों ने भी काफ़ी काम किए। उनके द्वारा धरने एवं जुलूस निकाले गए , सरकारों को सुझाव दिए गए । यही नहीं स्वयं सेवी जी डी अग्रवाल जी ने तो अपनी जान दे दी उनके बाद बिहार की पद्मावती अनशन पर बैठी लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। पर्यावरणविद श्री ज्ञानेंद्र रावत जी वर्षों से दशकों से इस पर अपनी राय एवं सुझाव देते रहे लेकिन नीति निर्धारकों ने नहीं सुनी। नई सरकार ने थोड़ी पहल की जैसे नया मन्त्रालय “ जल शक्ति मन्त्रालय “ बनाया  एवं “ नमामि गंगे प्रोजेक्ट “ शुरू किया। लेकिन इनके परिणाम को लेकर कुछ भी बताना जल्दबाज़ी होगी।
इस धारणा से शायद ही कोई असहमत हो कि गंगा सिर्फ़ आस्था नहीं अर्तव्यवस्था भी है। यद्यपि विडम्बना है कि प्रकृति द्वारा नदी  की शक्ल में प्रदत्त इस जीवनधारा के महत्व को हम याद याद नहीं रख पाए और उसे स्वार्थ बेपरवाही एवं अदूरदर्शिता का शिकार बनाया।
गंगा का सर्वाधिक नुक़सान औद्योगिक इकाइयों की संकीर्ण सोच और नगर निकायों की ग़ैरज़िम्मेदार कार्यशैली ने पहुँचाया है।सरकारों ने गंगा प्रदूषणमुक्त करने के नाम पर खरबों रुपये पानी में बहाए। काग़ज़ी क़वायद की आड़ में घोटालों के चलते वक़्त के साथ गंगा की हालत बदतर होती गयी। फिर भी लोग नदियों में सीवर की पानी पूजन सामग्री प्रवाहित करने की धृष्टता से बाज़ नहीं आते।जीवन एवं मोक्षदायिनी का जल ज़हर बन चुका था । उसे जल्दी ही अमृत नहीं बनाया जाता तो यह ज़हर किसी को भी नहीं बख़्शता ।
हमारे प्राचीन शस्त्रों ने मात्र तीन शब्दों में नदियों के अस्तित्व की सुरक्षा का मूलमंत्र दिया था- “ नदी वेगेन शुद्ध्यति “ अर्थात नदी अपने जल के वेग से शुद्ध होती रहती है।उसके प्रवाह को अवरुद्ध नहीं किया जाए तो वह कभी प्रदूषित नहीं होती।सब कुछ अपने प्रवाह में बहा कर ले जाती है और अनंत सागर को सौंप आती है। उसकी सफ़ाई के लिए विदेशों से या विश्व बैंक से ऋण लेने की आवश्यकता नहीं। देश के करोड़ों का बजट गंगा या अन्य नदियों पर नहीं ख़र्च होकर देश के अन्य समस्याओं जैसे युवाओं के लिए रोज़गार सैनिकों के लिए सुविधा शिक्षा की गुणवत्ता आदि पर ख़र्च हो सकता है। बस नदियों को अविरल बहने दें।
हमारा मानना है कि गंगा के नाम पर करोड़ों रुपये का बजट का नहीं बल्कि लोगों को गंगा से दूर रखना एवं फैकट्रीयों को बंद रखने की ज़रूरत है। लोगों को डर है कि अगर लॉक डाउन हटा तो गंगा कहीं पहले जैसी नहीं हो जाये।

Wednesday 6 May 2020

मजदूर संकट --: चुनौतियां के बीच संभावनाएं

मज़दूर संकट -चुनौतियाँ के बीच संभावनाएं

करोना महामारी के बाद पलायन लाज़मी था। पहले भी जब कही भी महामारी फैली है पलायन हुआ है। लेकिन लॉकडाउन  के कारण ये पलायन पहले से भिन्न है। वर्तमान में अनिश्चित्ता बनी हुई है। अर्थव्यवस्था की हालत भी ठीक नहीं है।इस कारण सभी को मज़दूरों पर सोचने के लिए विवश किया।
ये मज़दूर कौन हैं। पहले यह समझ लें।
आम दृष्टि में मज़दूर शारीरिक श्रम करने वाले माने जाते हैं।जबकि मौजूदा विश्व के संदर्भ में यह अर्थ अधूरा है।न केवल शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूर होते हैं बल्कि वह सभी लोग मज़दूर हैं जो काम के एवज़ में वेतन पाते हैं।लेकिन आम तौर पर लोग यह मानते हैं कि जो मिल या खेतों में काम करते हैं वही मज़दूर होते हैं। 
ग़रीब राज्य से काम की तलाश में ये मज़दूर हज़ारों मील दूसरे राज्य में जाते हैं और अपने हूनर से उस उस राज्य के विकास में अपनी भूमिका निभाते हैं।लेकिन कभी भी इन मज़दूरों के विषय में गम्भीरता से नहीं सोचा गया।आज करोना वायरस ने सब उधेड़ कर रख दिया है।शारीरिक श्रम करने वाले मज़दूरों के लिए कौन है ? मज़दूर भूखे प्यासे हज़ारों मील पैदल यात्रा कर गाँव जाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उनकी बचत और रोज़गार दोनो चले गए।
प्रवासी मज़दूर एक बार गाँव पहुँच गए तो शायद करोना का क़हर ख़त्म होने के बाद वापस शहर का रूख न करें।क़रीब पाँच करोड़ से ज़्यादा प्रवासी मज़दूर गाँव वापस जा चुके हैं।अब समस्या यह होगी कि जहाँ वे लौट कर गए हैं वहाँ तो रोज़गार है नहीं। अब सारा बोझ कृषि पर जाएगा। इसलिए स्थायी समाधान निकालना बहुत आवश्यक है। इसका समाधान यही है कि ग्रामीण इलाक़ों में कृषि आधारित छोटे छोटे उद्योग लगाए जाएँ । ग़रीब राज्यों में लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के  हुनर से बदलने होंगे गाँवों की सामाजिक,आर्थिक,और राजनीति जीवन।सरकार को संवेदनशील होना पड़ेगा।लौट रहे प्रवासी मज़दूर अपने हूनर से गाँव की तस्वीर बदल सकते हैं यदि सरकार संवेदनशील हों।निर्माण श्रमिक अब राज मिस्त्री का काम करेंगे,प्लम्बिंग,मोबाइल मरम्मत,बिजली मरम्मत दर्ज़ी एवं नाई,सलून आदि अनेक तरह के शहरी हूनर से लैस ये प्रवासी हूनरमंद गाँवों की तस्वीर बदल सकते हैं।युवा पीढ़ी शहर गाँव में आ कर जाति और धर्म की संकीर्णता से ऊपर उठकर सामाजिक तानाबाना भी बदलेंगे और समाज समावेशी होगा।घरेलू कामकाजी महिलाओं की स्वरोज़गार के हूनर भी सामने आएँगे।ज़रूरत है कि सरकारी ख़ज़ाने द्वारा बैंकों से उन्हें सहायता दी जाए।केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को दूरदर्शिता पूर्ण योजना बनाकर अमल करना चाहिए।आने वाले समय में रचनात्मकता और मानवीय संवेदना का कोई विकल्प नहीं है।सरकार को भी मज़दूरों के कौशल पर ध्यान देना होगा और रोज़गार के नए नए अवसर तलाशने होंगे।
एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि मज़दूरों के लिए आज तक जो भी योजनाएँ बनी हैं वे तीन तरह की हैं - पेन्शन, मेडिकल बीमा मृत्यु या विकलांगताकी स्थिति में मुआवज़ा।लॉकडाउन या आर्थिक मंदी जैसे संकट की स्थिति का मुक़ाबला करने के लिए एक भी योजना नहीं है।सरकार को जल्द कोई योजना बनाना चाहिए।
संकट संभलने का अवसर देता है। “जब जागे तभी सवेरा “।यह अवसर है सम्भलने का।सभी को मज़दूरों के विषय में सोचने की ज़रूरत है।ये मज़दूर समाज को कुछ देते ही है लेते कुछ भी नहीं है।मज़दूरों के लिए संवेदनशील संगठन को बाहर से आने वाले मज़दूरों के हूनर का प्रोफ़ाइल बनाकर उनके लिए पुनर्वास कार्य योजना तैयार करना चाहिए।
* तस्वीर गूगल