लॉक डाउन ने अगर मानव एवं अर्थव्यवस्था को एक तरफ़ क्षत-विक्षत किया तो दूसरी तरफ़ पर्यावरण हवा, नदी,एवं आसमान में एक बड़ा बदलाव किया है। यह एक वरदान के रूप में आया है।
लॉक डाउन के दौरान अविरल और निर्मल बहती जीवनदायिनी गंगा ने क़रीब 50 वर्ष बाद रूप बदल लिया।कल कल करते हुए गंगा की आवाज़ सिर्फ़ अविरल धारा का बहाव नहीं यह पतित पावनी की दिल की आवाज़ भी है। गंगा की शोर मे उसकी मुस्कान महसूस होता है।
जिस गंगा को अरबों रुपये ख़र्च करके सरकारों ने निर्मल नहीं कर पायी वही गंगा गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक इस लॉक डाउन मे ख़ुद से साफ़ कर लिया।गंगा ने देश के अरबों रुपये बचा लिए।हमने गंगा के आँचल को इन पचास वर्षों मे बहुत गंदा किया।सामाजिक संस्थाएँ,सरकारें,वैज्ञानिकों द्वारा जिस गंगा के जल को पीने योग्य नहीं बनाया जा सका उस गंगा का जल लौकडाउन के दौरान पीने हो गया।इसके पानी में 500% TDS की कमी आयी है।आज इसकी TDS की वैल्यू 72 है जो सामान्यतः घरों में पीने के लिए इस्तेमाल करते हैं । जिस गंगा के जल को B category में रखा गया था अब वह A category में आ गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब गंगा के जल को dysinfect कर पीने के योग्य हो सकता है।
उत्तराखण्ड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक़ गंगा का जल अब दशकों बाद chlorification के बाद पीया जा सकता है।हर की पौड़ी एवं ऋषिकेश से लिए गए जल के sample से यह साबित हुआ है। पानी का PH balance 6.5-8.5 के बीच है।PH balance से ही पानी में acid की जाँच होती है।वैज्ञानिकों ने भी माना है कि लोगों की ग़ैर मौजूदगी एवं फ़ैक्टरी बंद होने से प्रदूषण अब गंगा में नहीं होता जिसके कारण यह बड़ा परिवर्तन सम्भव हुआ है।
गंगा के निर्मल निश्छल नीला रंग अब पीने योग्य हो गया है। जिस गंगा जल को पूजा जाता है उसे दूषित कोई नहीं बल्कि हम इंसानों ने किया है।जब लॉक डाउन है, फ़ैक्टरी बंद पड़े हैं और घाटों पर किसी को जाने की इज़्ज़ाजत नहीं है गंगा ने स्वयं को स्वच्छ कर लिया।गंगा अपने ही जल में साँस ले रही है क्योंकि उसमें oxygen की मात्रा बढ़ी है।
गंगा उत्तराखण्ड से बंगाल की खाड़ी तक की दूरी लगभग 2500 km तय करती है जिसमें 29 बड़े शहर, 23 छोटे शहर और 48 क़स्बे आते हैं जिन्हें पोषण करती है। लेकिन दू:ख है कि इसमें लगभग 1000 फ़ैक्टरी का कचड़ा और शहरों के गंदी नालों का पानी गिराए जाते हैं। रासायनिक कारख़ानों का कचड़ा गंगा मेन बहाए गए। कानपुर के चर्म उद्योग ने भी गंगा को प्रदूषित किया। औद्योगिक विकास हमारी उन्नति,प्रगति,और समृद्धि के लिए आवश्यक है इसलिए औद्योगिक इकाइयों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी किन्तू इन इकाइयों की गंध, तेज़ाब,गंधक,कौस्टिक सोडा आदि के निस्तारण का समुचित प्रबंध नहीं होने से उसे गंगा नदी में बहा दिया जाता है।शहरों में घनी आबादी वाले क्षेत्रों में मल-मूत्र को बिना उपचार किए नदी में बहाए गए। तीर्थ स्थलों पर लाखों लीटर मैले गंदगी गंगा मे बहाते रहे। गंगा के तटों पर लाखों शवों का दाह किया जाता है। इसके लिए लाखों टन लकड़ियों की ज़रूरत होती है जिसके जलने से लाखों टन राख जमा हो जाती है। इन सब से जल का प्रदूषण स्तर बढ़ जाता है।
गंगा के स्रोतों के पर्यावरणप्रदूषण के विषय पर योजनाएँ बनीं।प्रदूषण को रोकने के लिए कुछ कार्यवाही भी हुई। जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए कुछ कार्यवाही भी हुई। जल की शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रदूषण निरोधक जाल भी बिछाया गया जिसे Enviornmental Monitoring System कहा जाता है।Central pollution board ने प्रदूषण को रोकने के लिए अनेक उपाय किए। केंद्रीय गंगा संस्थान प्राधिकरण 1985 में स्थापित किया गया। उसका मुख्य उद्देश्य गंगा नदी को प्रदूषण से मुक्त करना था। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक विश्वविद्यालय एवं प्रयोगशाला में इसपर अध्ययन एवं शोध हुए।राष्ट्रीय सेवा योजना, नेहरु युवक केंद्र ने भी काम किए। लेकिन परिणाम संतोष जनक नहीं रहा। स्वयं सेवी संगठनों ने भी काफ़ी काम किए। उनके द्वारा धरने एवं जुलूस निकाले गए , सरकारों को सुझाव दिए गए । यही नहीं स्वयं सेवी जी डी अग्रवाल जी ने तो अपनी जान दे दी उनके बाद बिहार की पद्मावती अनशन पर बैठी लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। पर्यावरणविद श्री ज्ञानेंद्र रावत जी वर्षों से दशकों से इस पर अपनी राय एवं सुझाव देते रहे लेकिन नीति निर्धारकों ने नहीं सुनी। नई सरकार ने थोड़ी पहल की जैसे नया मन्त्रालय “ जल शक्ति मन्त्रालय “ बनाया एवं “ नमामि गंगे प्रोजेक्ट “ शुरू किया। लेकिन इनके परिणाम को लेकर कुछ भी बताना जल्दबाज़ी होगी।
इस धारणा से शायद ही कोई असहमत हो कि गंगा सिर्फ़ आस्था नहीं अर्तव्यवस्था भी है। यद्यपि विडम्बना है कि प्रकृति द्वारा नदी की शक्ल में प्रदत्त इस जीवनधारा के महत्व को हम याद याद नहीं रख पाए और उसे स्वार्थ बेपरवाही एवं अदूरदर्शिता का शिकार बनाया।
गंगा का सर्वाधिक नुक़सान औद्योगिक इकाइयों की संकीर्ण सोच और नगर निकायों की ग़ैरज़िम्मेदार कार्यशैली ने पहुँचाया है।सरकारों ने गंगा प्रदूषणमुक्त करने के नाम पर खरबों रुपये पानी में बहाए। काग़ज़ी क़वायद की आड़ में घोटालों के चलते वक़्त के साथ गंगा की हालत बदतर होती गयी। फिर भी लोग नदियों में सीवर की पानी पूजन सामग्री प्रवाहित करने की धृष्टता से बाज़ नहीं आते।जीवन एवं मोक्षदायिनी का जल ज़हर बन चुका था । उसे जल्दी ही अमृत नहीं बनाया जाता तो यह ज़हर किसी को भी नहीं बख़्शता ।
हमारे प्राचीन शस्त्रों ने मात्र तीन शब्दों में नदियों के अस्तित्व की सुरक्षा का मूलमंत्र दिया था- “ नदी वेगेन शुद्ध्यति “ अर्थात नदी अपने जल के वेग से शुद्ध होती रहती है।उसके प्रवाह को अवरुद्ध नहीं किया जाए तो वह कभी प्रदूषित नहीं होती।सब कुछ अपने प्रवाह में बहा कर ले जाती है और अनंत सागर को सौंप आती है। उसकी सफ़ाई के लिए विदेशों से या विश्व बैंक से ऋण लेने की आवश्यकता नहीं। देश के करोड़ों का बजट गंगा या अन्य नदियों पर नहीं ख़र्च होकर देश के अन्य समस्याओं जैसे युवाओं के लिए रोज़गार सैनिकों के लिए सुविधा शिक्षा की गुणवत्ता आदि पर ख़र्च हो सकता है। बस नदियों को अविरल बहने दें।
हमारा मानना है कि गंगा के नाम पर करोड़ों रुपये का बजट का नहीं बल्कि लोगों को गंगा से दूर रखना एवं फैकट्रीयों को बंद रखने की ज़रूरत है। लोगों को डर है कि अगर लॉक डाउन हटा तो गंगा कहीं पहले जैसी नहीं हो जाये।
Well researched !!
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