Sunday 27 September 2020

बिहार चुनाव 2020 और जातिवाद

बिहार विधान सभा चुनाव 2020 - जातपात
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 नहीं केवल विकास
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ऐसा कहा जाता है कि  बिहार में जातिवाद पर ही चुनाव होते हैं। लालू यादव की पार्टी राजद जातिवाद पर ही आधारित है। ऐसा नहीं है कि बिहार में सिर्फ लालू ही जातिवाद करते हैं,  सारे राजनितिक दल जातिवाद के दम पर अपना चुनावी समीकरण बनाते हैं।
बिहार कि जनता को यह बखूबी मालूम है कि बिहार देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले विकास में पीछे रह गया है। इसके लिए जातिवाद कहीं न कहीं जिम्मेवार है। इसलिए शायद जातिवाद का मिथक टूट रहा है। वर्ष  2010 से ही की जनता ने जाति से सरकार चुनने की प्रथा को खत्म करने की कोशिश की है और जातीय बंधनों को तोड़कर राजनीति में नई परिभाषा को जन्म दिया जिसकी महक देश के अन्य प्रदेशों में महसूस की जा सकती है। पिछले कुछ वर्षों तक बिहार की राजनीति में लालू यादव " माय " ( मुस्लिम + यादव ) समीकरण के बलबूते पर राजनीति की वहीं रामविलास पासवान को दलित नेता कहलाने का प्रयास हमेशा रहा पर जब जब गठबंधन में चुनाव लड़े पूरी तरह पराजित हुए।

गौरव मतलब है कि नीतीश कुमार ने भी जातिवाद को बढ़ावा दिया और दलित को महादलित बना कर बिहार में जातीय राजनीति कर दी लेकिन नीतीश कुमार की मंशा उन्हें दो टुकड़ों में बांट कर उनका विकास लक्ष्य माना जाता है। 15 वीं बिहार विधान सभा के नतीजे ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जाति से सरकार नहीं चुनी जाएगी। लेकिन यह निश्चित नहीं है कि जातिवाद को हमेशा के लिए अलग रखा जा सकेगा क्योंकि लालू जैसे नेता को इसी जातिवाद का सहारा है। बताया जा रहा है कि चुनाव में जहां राजद अपनी हिस्से में आने वाली ज्यादातर सीटों पर मुस्लिम यादव उम्मीदवार खड़े करेगी वहीं उसके गठबंधन के साथी कांग्रेस ने भी अपने हिस्से में आने वाली सीटों पर ज्यादातर टिकट भूमिहार ब्राह्मण को देने का मन बना लिया है । भाजपा और उसके सहयोगी भी जातिवाद पर उतरे हुए हैं । सभाओं और रैलियों में भाजपा गठबंधन के नेताओं के चेहरे को दिखाकर और और उनके नाम बताकर जनता को समझाया जा रहा है कि असली यादव तो भाजपा गठबंधन में है। मतलब साफ है जाति से जाति को काटा जा रहा है। 

बिहार में विधान सभा चुनाव का शंखनाद हो  चुका है। सारे दल के नेता जातिवाद को हवा देंगे। विकास को चुनावी मुद्दा तो ये नेता बनाएंगे लेकिन केंद में जाति होगी। अब बिहार की जनता को तय करना है कि प्रदेश को क्या देना चाहती है जातिवाद या विकास ?  क्या जातिवाद के लिए राजनेता ही जिम्मेवार हैं ? आम जनता नहीं ? अगर सच पूछा जाए तो आम जनता भी उतना ही कसूरवार है जितने राजनेता क्योंकि जनता हमेशा वैसी सरकार बनाती है  जिसमें जातीय गठजोड़ हो । वैसी सरकार  केवल अपनी सरकार बचाने में लगी रहती है और कार्यकाल निकल जाता है। कोई विकास नहीं हो पाता।

पांच साल तक लगातार उस क्षेत्र के विधायक एवं नेताओं को कोसने में नहीं थकने वाली जनता सिर्फ जाति देखकर उसे माफ कर देती है कि एक बार और मौका दे कर देखते हैं यह जनता की लाचारी मानी जाएगी या बेवकूफी ? विकास के मुद्दे पर राजनीति करने के बजाए लोग जातीय महत्व देकर नालायक एवं अयोग्य नेता चुन लेते हैं उससे जनता को ही नुकसान होता है। आखिर चुनाव के वक़्त जनता की ऐसी  हरकत हमे कैसी सरकार देती है सभी जानते हैं लेकिन ऐसा करने से क्या राज्य विकसित हो पाएगा ? 
जाति से परिवार चलता है सरकार नहीं। जनता की स्वस्थ एवं स्वच्छ सरकार चुनने के लिए लाचारी या बेवकूफी को दरकिनार करना होगा अन्यथा उनकी लाचारी या बेवकूफी राज्य को देश के पिछले पायदान पर  ही रखेगा। राजनेताओं को कोसने से कुछ नहीं मिलेगा। 

बिहार की जनता को जातिवाद से हटकर स्वच्छ छवि के समाजसेवी को अपना विधायक चुनना चाहिए। अगर इस चुनाव में बिहार की जनता ऐसा करती है तो पूरा विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि बिहार विकास के पथ पर दौड़ेगा।जब बिहार में विकास होगा तब देश में भी विकास होगा।  ये सर्वविदित है कि बिहार से उठा हुआ आंदोलन की धमक पूरे देश में सुनाई देता है।
चित्र : गूगल

Wednesday 23 September 2020

कृषि क्षेत्र में बड़ा बदलाव


एक ख्वाहिश, एक सपना, एक भूख, एक मातृ प्रेम ,
इन सबका मिला जुला रूप है भारत का किसान।

किसान सभी लोगों के लिए खाद्द सामाग्री का उत्पादन करता  हैं इसलिए हम उसे  अन्नदाता भी कहते हैं। भारत हमेशा से कृषि प्रधान देश रहा है। ज़ाहिर है किसानों की दशा अच्छी रहनी चाहिए थी किन्तु ऐसा नहीं है। भारत में किसानों द्वारा आत्महत्या सबसे ज्यादा की  जाती है। हालांकि सभी सरकारें किसानों को कर्ज माफी के लिए समर्थन करती रहीं लेकिन किसानों की आर्थिक स्थिति को सशक्त बनाने की नहीं सोची गई।  उन्हें आत्मनिर्भर नहीं बनाया गया। आए दिन किसानों द्वारा आंदोलन करना आम बात हो गई थी। 

जबकि कुछ विकसित देशों में किसान शब्द का उपयोग किसी व्यवसाई या पेशेवर के लिए किया जाता है जिसके पास फसल उगाने के लिए ज़मीन और रुचि तो होता ही है पर साथ ही वह लोगों को उसमे काम करने के लिए भी रखता है। भारत में कृषि सुधार के लिए एवं विकसित देशों के साथ खड़े करने के उद्देश्य से मोदी सरकार द्वारा दो महत्व पूर्ण विधेयक कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य ( संवर्धन और सरलीकरण ) विधेयक 2020 और कृषक ( सशक्तिकरण और संरक्षण ) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर विधेयक 2020 को लोक सभा एवं राज्य सभा में पारित कराया गया। यह स्वागत योग्य है।
अब देश में " एक देश एक बाज़ार " होगा जहां कोई भी व्यक्ति को किसी भी राज्य के बाज़ार में बेचने की आज़ादी होगी। व्यापारी पहले एक मंडी में काम करता था अब पूरे देश में करेगा। इसमें किसान को भुगतान तीन दिनों के भीतर हो इसका प्रावधान किया गया है। स्पष्ट है कृषि व्यापार खुल रहा है। इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। छोटा व्यापारी या किसान बड़े व्यापारी के साथ कमाएंगे। ये कहा जा सकता है कि किसान मण्डी की जंजीरों से आज़ाद हुआ। बिचौलियों का खात्मा हो गया। कॉर्पोरेट फार्मिंग को बढ़ावा मिलेगा। ये विधेयक सही मायने में किसान को अपने फसल के भंडारण और बिक्री की आज़ादी देगा एवं बिचौलियों के चुंगल से उन्हें मुक्त करेगा। किसान अपनी मर्ज़ी का मालिक होगा। किसानों को उपज बेचने का विकल्प देकर उन्हें सशक्त बनाया गया है। मुझे नहीं लगता कि किसानों को सशक्त बनाने के लिए कभी इतना बड़ा सुधार ( reform ) किया गया था। 

लेकिन किसानों के हितों पर अपनी राजनीति सेंकने वाले कई विपक्षी दलों को बहुत बड़ा आघात लगा। किसानों के बहाने विपक्ष मोदी सरकार को झुकाना चाहती है। इसी कारण कृषि संबंधी विधेयक का विरोध हो रहा है। विरोध जितना किसान नहीं कर रहे हैं उससे ज्यादा विपक्षी दल कर रहे हैं।कांग्रेस तो खुद इस विधेयक को लाना चाहती थी एवं अपने कार्यकाल में ही कानून लाना चाहती थी किन्तु इच्छा शक्ति के अभाव में नहीं कर पाई। बिहार में चुनाव है और दूसरे राज्यों में जल्द होने वाले हैं ऐसे चुनावी माहौल में कांग्रेस को मोदी का  किसान प्रेम और कृषि संबंधित फैसले रास नहीं आ रही है। विपक्ष को किसानों की चिंता नहीं है। उन्हें चिंता है तो सिर्फ वोट बैंक की। क्योंकि किसान बहुत बड़ा वोट बैंक है। किसानों को भ्रमित किया जा रहा है। 

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉर्पोरेट घरानों के हांथों में चला जाएगा और उसका नुकसान किसानों को होगा। लेकिन इन किसान संगठनों को किसानों से ज्यादा चिंता है आढ़तियों की। आढ़तियों एवं एजेंटों को करीब 2.5 प्रतिशत का नुकसान होगा। 
लेकिन इन सब के बीच किसानों को समझना होगा कि ये कृषि विधेयक उन्हें बिचौलियों और आढ़तियों की मनमानी से आज़ादी दिलाएंगे और किसानों की आय को दोगुनी करने में सहायक होंगे।
ऐसा लगता है शायद सरकार विधेयकों से जुड़ी जानकारी किसानों तक नहीं पहुंचा पाई। हालाकि प्रधान मंत्री ने खुद आश्वासन दिया कि एमएसपी की व्यवस्था जारी रहेगी। मण्डी की व्यवस्था यथावत रहेगी। लेकिन शायद थोड़ा विलंब हुआ। किसानों के लिए कल्याणकारी और दूरगामी प्रभाव वाले जानकारियां किसानों तक नहीं पहुंचा पाई जिससे पंजाब एवं हरियाणा के किसानों में भ्रम पैदा हो गया। इन विधेयकों से कॉर्पोरेट घरानों को फायदा, कालाबाजारी और किसानों का शोषण जैसी अफवाहें भी उड़ाई जा रही है जिससे किसान विरोध में सड़क पर उतर आएं।सरकार को इन भ्रांतियों की स्पष्टीकरण देना चाहिए और सभी किसानों तक विधेयक से जुड़ी जानकारियां सरल भाषा में पहुंचाना चाहिए।

Monday 14 September 2020

हिंदी के विस्तार में विचारों और अन्य संस्कृतियों का समावेश ज़रूरी

आज हिंदी दिवस है।  लेकिन हिंदुस्तान में ही हिन्दी को  बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है इससे बड़ी विडंबना क्या हो  सकता है। इसका प्रचार प्रसार दूसरे देशों में कैसे हो सकता है जब एक साजिश के तहत अपने  ही देश में कुछ मुट्ठी भर लोग इसे हाशिए पर चढ़ाना चाहते हैं। हमारे देश में रोज   हिन्दी की हत्या की जा रही है। हिंदी के प्रति प्रचार प्रसार की जिम्मेवारी जिसे दी जाती है वहीं अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह नहीं निभाते। मेरे एक मित्र ने एक कहानी सुनाई थी।

सरकारी कार्यालय में नौकरी मांगने हमारे मित्र  पहुंचा तो अधिकारी ने पूछा - क्या किया है ?
मित्र ने कहा - एम. ए.
अधिकारी बोला - किस में ?
मित्र ने गर्व में कहा - हिंदी में 
अधिकारी ने नाक सिकोड़ी  और बोला - अच्छा .. हिंदी में एम. ए. हो ? बड़े बेशर्म हो अभी तक ज़िंदा हो , तुमसे अच्छा तो वो स्कूल का लड़का ही अच्छा था  जो ज़रा सी हिंदी बोलने के कारण इतना अपमानित हुआ कि उसने आत्म हत्या कर ली अरे इस देश के बारे में सोचो नौकरी मांगने आए हो , कहीं खाई या कुआं खोजो
मित्र  ने कहा - हिंदुस्तान में रहते हुए हिन्दी का विरोध, हिंदी के प्रति इतना प्रतिशोध ? 
अधिकारी ने कहा -  यह हिंदुस्तान नहीं,  इंडिया है और हिंदी सुहागिन भारत के माथे की उजड़ी हुईं बिंदिया है । तुम्हारे ये हिंदी के ठेकेदार हर वर्ष हिंदी दिवस तो मनाते है पर रोज होती हिंदी - हत्या को जल्दी भूल जाते हैं।

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है लेकिन राष्ट्र बोलने से कतराता है। जुबान से " A B C D "  जिस  confidence  से फूटती है " क ख ग घ " उस आत्म विश्वास से क्यों नहीं निकलता है। मां - बाप भी चौड़े हो कर बताते है कि उनके   बच्चे अंग्रेज़ी में बोलते है । ये क्यों नहीं समझते कि जो अपनापन " मां " में है वह अपनापन " Mom " में नहीं है।

हिंदी का विस्तार तब तक नहीं हो सकता, जब तक इसमें विचारों और अन्य संस्कृतियों का समावेश न किया जाए।  विश्व की चौथी सबसे बड़ी  भाषा होने के बावजूद इसके प्रसार की दिशा में कभी कोई संगठित प्रयास ही नहीं किया गया। यही वजह है कि आज हिंदी पर  अंग्रेज़ी दां लोग हावी हो रहे हैं । हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। हमारी भाषा हमारी सांस्कृतिक पहचान को परिभाषित करती है।  हिंदी की महत्ता इससे भी आती है कि यह हमे स्वयं से जोड़ती है।  
बता दें देश में करीब 77 प्रतिशत लोग हिंदी बोलते हैं। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा आज़ाद भारत की मुख्य भाषा के रूप में हिंदी को पहचान दी गई थी। साल 1952 में पहली बार हिंदी दिवस का आयोजन हुए था। तब से ये सिलसिला लगातार बना हुआ है।गांधी जी ने हिंदी भाषा को जनमानस की भाषा भी कहा है।  हिंदी का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है।


Monday 7 September 2020

विश्व साक्षरता दिवस : शिक्षा का प्रचार - प्रसार की जिम्मेवारी सभी की

पूरा विश्व 8 सितम्बर को हर वर्ष साक्षरता दिवस मनाता है। विश्व में शिक्षा के महत्व को दर्शाने और निरक्षरता को समाप्त करने के उद्देश्य से 17 नवम्बर 1965 को यह निर्णय  यूनेस्को द्वारा लिया गया था। पहला अंतर्राष्ट्रीय साक्षरता दिवस 1966 को मनाया गया था।
भारत में साक्षरता दर 74.04% है जहां पुरुषों की साक्षरता दर 82.14% है वहीं महिलाओं में इसका प्रतिशत केवल 64.46 है। आशा है आने वाले 20 सालों में 99. 50% हो जाएगा।
साक्षरता के क्षेत्र में विश्व में भारत का 131 वां स्थान है। भारत में अभी भी 60 लाख बच्चे स्कूल नहीं जाते। भारत में सबसे ज्यादा निरक्षर लोग रहते हैं। भारत में 28 करोड़ बच्चे पढ़ नहीं सकते। केरल में सबसे ज्यादा साक्षरता प्रतिशत 93.91 है।
सभी के लिए शिक्षा एक विकसित , सभ्य समाज की महत्वपूर्ण विशेषता है। इसलिए हम ये समझते हैं कि शिक्षा है क्या ? जीवन की सुसंस्कृत और सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षा अति आवश्यक है। शिक्षा मानव को एक अच्छा इंसान बनाती है। शिक्षा में ज्ञान , उचित आचरण , तकनीकी दक्षता , शिक्षण और विद्या प्राप्ति आदि समाविष्ट है। अतः शिक्षा , कौशलोंव्यापार या व्यवसाय एवं मानसिक , नैतिक और सौंदर्य विषयक के उत्कर्ष पर केन्द्रित है। समाज की एक पीढ़ी अपने ज्ञान को दूसरी पीढ़ी में स्थांतरित करने का प्रयास ही शिक्षा है। अतः हम कह सकते हैं कि शिक्षा एक संस्था के रूप में काम करती है जो व्यक्ति विशेष को समाज से जोड़ने में महत्वपूर्ण भमिका निभाती है तथा समाज की संस्कृति को निरंतरता को बनाए रखती है। शिक्षा के द्वारा ही बच्चे समाज के आधारभूत नियमों व्यवस्थाओं एवं मूल्य को सीखते है।
साक्षरता और शिक्षा का वास्तविक अर्थ क्या है ? क्या इसका अर्थ यह है कि हम उनलोगों को शिक्षित और साक्षर माने जो पढ़ लिख सकते हैं और संख्याओं को समझ सकते है ? क्या हम ऐसे व्यक्ति को शिक्षित मान सकते हैं । क्या हम ऐसे व्यक्ति को शिक्षित मान सकते है जिसने विद्यालय और महाविद्यालय स्तर पर विभिन्न विषयों और पाठ्यक्रमों का अध्ययन किया है। यदि आप अपनी शिक्षा का विश्व के साथ व्यवहार करते समय या अपने व्यावसायिक जीवन उपयोग करने में असमर्थ है तो आपकी शिक्षा का कोई अर्थ है ?
शिक्षा का आधुनिक और विश्वसनीय पैमाना यह होना चाहिए कि शिक्षित व्यक्ति कितनी अच्छी तरह से और कितनी तेजी से बदलते विश्व परिदृश्य के साथ अपने आपको समायोजित करता है। सच्चे अर्थ में शिक्षा का सीधा संबंध आत्मबोध से होता है।
साक्षरता दिवस पर सभी को संकल्प ज़रूर तीन काम करना चाहिए :
1. कम से कम एक जरूरतमंद बच्चे को ज़रूर पढ़ाएं।
2. बच्चों के लिए किताबों का संग्रह करें और घरों में छोटा पुस्तकालय बनाएं।
3. ऑफिस में " पुस्तक क्लब " ज़रूर बनाएं।

इसके साथ एक नई शुरुआत करते हैं। साक्षरता दिवस पर प्रण करते हैं कि शिक्षा का प्रचार -  प्रसार करेंगे। ज्यादा से ज्यादा बच्चे जो गरीबी के कारण स्कूल नहीं जा पाते  उनके पढ़ाई का खर्च उठाएंगे। सरकार पर शिक्षा के लिए बजट बढ़ाने के लिए दवाब बनाएंगे। शिक्षा की प्राप्ति को संभव बनाना अर्थात बालकों से लेकर प्रौढ़ तक के यथोचित शैक्षणिक परिवेश प्रदान करना हम सभी की जिम्मेवारी होनी चाहिए।  हमारी यही छोटी छोटी कोशिशें कई बार बड़ा आकार लेने में सक्षम होती है। इससे देश की तस्वीर बदल जाएगी। 

चित्र : गूगल

Thursday 3 September 2020

शिक्षक दिवस: युग बदला और बदल गया गुरु - शिष्य का संबंध

हमारे समाज और देश में शिक्षकों के योगदान को सम्मान देने के लिए हर वर्ष 5 सितंबर को भारत में शिक्षक दिवस मनाया जाता है।
जीवन में सफल होने के लिए शिक्षा सबसे ज्यादा ज़रूरी है।  शिक्षक देश के भविष्य और युवाओं के जीवन को बनाने और उसे आकार देने के लिए सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कहते हैं कि किसी भी पेशे की तुलना अध्यापन से नहीं की जा सकती। ये दुनिया के सबसे नेक कार्य है। इस साल की शिक्षक दिवस मैं अपनी मां श्यामा सिन्हा को समर्पित करता हूं। 

मेरी मां श्यामा सिन्हा जो पिछले महीने इस दुनिया से चली गईं , को शिक्षा से काफी लगाव था। उन्होंने उस समय बी ए और बी एड किया था जिस समय कम  महिलाएं ही उच्च शिक्षा के लिए जाती थीं। उन्होंने 36 साल  पटना के राजकीय कन्या उच्च विद्यालय में अध्यापन को दिया था।  वह भी उन दिनों में जब निजी विद्यालय दो चार ही होते थे।  अमीर गरीब सभी छात्र छात्राएं सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ा करते थे। उनके द्वारा पढ़ाई गई न जाने कितनी छात्राएं आज डाक्टर, इंजिनियर,  अध्यापिका, या ऑफिसर बनी होंगी। वे अध्यापन के अलावा सामाजिक कार्य भी  किया करती थीं। उन्होंने बहुत से लड़कियों की शादियां कराई। बहुत लोगों को आश्रय दिया।  एक घटना मुझे आज भी याद है। एक व्यक्ति , जो  रेस्टोरेंट चलाता था लेकिन लंबी बीमारी की वजह से उसे  रेस्टोरेंट बंद करना पड़ा था मेरी मां के पास अपनी पत्नी और छ बच्चों के साथ आया और मेरे घर के सामने खाली  पड़ी जमीन पर ढाबा खोलने के लिए अनुमति मांगी।  वहीं पास में असामाजिक तत्वों द्वारा खोली हुई चाय की दूकान वाले  नहीं चाहते  थे कि वहां ढाबा खुले। उन्होंने विरोध किया। मां ने प्रशासन की मदद से उस चाय वाले को वहां से हटा कर उस व्यक्ति की ढाबा खुलवा दी जिसका एहसान उसकी संतानें आज भी मानती है। तभी तो ज्यादातर शिक्षक आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे क्योकि शिक्षक निडर होते हैं और किसी के सामने नहीं झुकते।

उन दिनों ( सत्तर के दशक में ) शिक्षक दिवस बहुत ही धूम धाम से मनाया जाता था।  उन दिनों शिक्षक दिवस के दिन पढ़ाई नहीं होती थी बल्कि उत्सव और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। छात्राएं अपनी शिक्षिका को ढेर सारे उपहार दिया करती थीं। गुरु - शिष्य परंपरा को कायम रखने के लिए संकल्प लिया जाता था। मै मां के साथ  बचपन में उनके विद्यालय इस दिन ज़रूर जाया करता था इसलिए अभी भी मेरे मस्तिष्क पटल पर है।  
युग बदल गया और बदल गया गुरु - शिष्य का संबंध।  जब शिक्षा एक व्यवसाय बन कर रह गई है तो ऐसे में समय के साथ छात्रों और शिक्षकों के आपसी संबंध भी बदले हैं। आज शिक्षा में शिक्षक की भूमिका अस्वीकार कर E - Learning  जैसी बात हो रही है लेकिन मेरा मानना है आमने सामने के शिक्षण में जो आपसी विचारों का आदान प्रदान होता है वह दूरस्थ शिक्षा में संभव नहीं हो पाता। इसमें विचारों का एक तरफा बहाव है जो छात्रों का सम्पूर्ण विकास नहीं कर पाता है। शिक्षकों में भी समाज के दूसरे वर्ग की तरह कमाने की इच्छा बढ़ गई है। आज छात्र - छात्राओं और शिक्षकों के में  भले ही मतभेद हो लेकिन शिक्षकों को वह सम्मान हमेशा देना चाहिए जिसके वह हकदार हैं। शिक्षक दिवस के बहाने ही सही उनकी कृतज्ञता स्वीकार कर के यह संकल्प लेना चाहिए कि हमेशा उनका आदर करेंगे।