Tuesday, 30 June 2020

भारत चीन विवाद में दलाई लामा खामोश क्यों ?

प्रशांत सिन्हा तिब्बत के निर्वासित प्रधान मंत्री श्री लोबसांग सांगे के साथ
भारत-चीन सीमा पर तनाव है। भारत और चीन के सैनिक आमने सामने आने वाले हैं। दोनो देशों की सरकारें अपने अपने सैनिकों को युद्ध की तैयारियाँ करने के लिए कहा है। चीन की सेना भारत की सीमा के अंदर आने के बाद बातचीत के बावजूद वापस नहीं जा रही है। चीन को भारत द्वारा बनाए गए अपनी ही सीमा के अंदर डोकलाम में बने सड़क से ऐतराज़ है। डोकलाम के पास चीन, भूटान, और सिक्किम की सीमाएँ मिलती हैं। इसलिए चीन इस स्थान को अपने लिए महत्वपूर्ण मानता है। लेकिन चीन भूल गया है कि आज का भारत 1962 वाला भारत नहीं है। भारत अपनी ज़मीन का एक इंच हिस्सा भी छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। 
भारत का साथ दूसरे देश भी दे रहे हैं किंतु हैरानी की बात है कि चीन की रवैए पर तिब्बत के आध्यात्मिक नेता श्री दलाई लामा ने कोई भी वक्तव्य नहीं दिया। देश के हर हिस्से में चीन का विरोध हो रहा है लेकिन दलाई लामा एवं भारत में बड़ी संख्या में रहने वाले तिब्बती समुदाय के लोग न चीन का विरोध कर रहे हैं और न कुछ बोल रहे हैं।
मुझे पूरी उम्मीद थी कि तिब्बती समुदाय के लोग भारतियों के साथ मिलकर विरोध करेंगे। लाखों तिब्बती पिछले साठ से भी अधिक वर्षों से भारत में रहते आ रहे हैं। क़रीब चार साल पहले मेरी मुलाक़ात तिब्बत के निर्वासित सरकार के प्रधान मंत्री लोबसांग साँगे से दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम के दौरान हुई। वहाँ उन्होंने कहा था कि तिब्बत की मुक्ति न केवल तिब्बत के हित में है बल्कि भारत और दूनिया के हित में भी है। तिब्बत के प्रति दूनिया भर के नेताओं से समर्थन भी मिल रहा है। साँगे मानते हैं कि तिब्बत से हज़ारों मील दूर होने के बावजूद तिब्बती संस्कृति, परम्पराएँ और और विरासत आज भी क़ायम है तो इसके पीछे भारत का बहुत बड़ा योगदान है।दलाई लामा समेत तिब्बती समुदाय के लाखों लोगों को भारत ने जिस तरह अपने यहाँ शरण, सुरक्षा और सम्मान दिया है वह अतुलनीय है। भारत में रह रहे अधिकतर तिब्बती तिब्बत की आज़ादी के संघर्ष से जुड़ रहे हैं। उन्होंने हम भारतीयों से “ मुक्त तिब्बत “ के आंदोलन को और तेज़ करने का आग्रह किया था। आज जब भारत चीन के बीच सीमा विवाद पर टकराव हो रहा है तो दलाई लामा चुप क्यों हैं ? इस मसले के बीच तिब्बत का मसला भी आता है। दलाई लामा को अंतराष्ट्रीय मंच पर भारत के पक्ष में और चीन की विस्तारवादी नीतियों को दूनिया के सामने रखना चाहिए था। शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा को सारी दूनिया सम्मान की नज़र से देखती है पर उनके नहीं बोलने से निराशा हुई।
ज्ञात रहे 1959 से दलाई लामा एवं उनके साथ भारी संख्या में तिब्बती भारत में रह रहे हैं। चीन को भारत में दलाई लामा का शरण मिलना अच्छा नहीं लगा था। भारत चीन मैत्री में दरार आने का एक कारण यह भी रहा है। दलाई लामा ने चीन द्वारा अपनी मृत्यु कराने की शंका के कारण बड़ी संख्या में अपने अनुयायियों के साथ भारत में शरण ले लिया था। तिब्बती समुदाय के लोग भारत के दिल्ली, देहरादून, धर्मशाला, और सिक्किम में लाखों की संख्या में फैले हुए हैं। जब चीन १ अक्टूबर को अपना राष्ट्रीय दिवस मनाता है तब ये तिब्बती लोग चीन के दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शन करते हैं । तो आख़िर क्या कारण है कि आज इन चीनी हरकतों का विरोध इन्होंने नहीं किया ? दलाई लामा द्वारा दिए गए गए बयान कि “ चीन से आज़ादी नहीं स्वायत्ता चाहते हैं “ के कारण विरोध नहीं किया जा रहा है या कहीं इसलिए ख़ामोशी तो नहीं कि दलाई लामा की उम्र बढ़ रही है ऐसे में बहुत से तिब्बतियों को डर है कि चीन की सरकार उनकी जगह अपनी पसंदीदा व्यक्ति को नियुक्त कर देगी। 
ख़ुद को महाशक्ति की तरह पेश करता चीन छोटी छोटी बातों से डरता है। चीन में रहने वाले 60 लाख से ज़्यादा तिब्बतियों में ज़्यादातर अब भी दलाई लामा का बहुत सम्मान करते हैं। दलाई लामा को दूनिया के दूसरे देशों से भी समर्थन मिलता है। फिर ऐसी क्या राजनीतिक मजबूरियाँ हो सकती हैं ? अगर उनका बयान आता और भारत  के साथ दूसरे देशों में बसे तिब्बतियों द्वारा भारत के पक्ष में चीन का विरोध होता तो सम्भवतः चीन पर ज़्यादा दवाब पड़ता।

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